Monday 21 October 2013

शून्य संवेदना

शून्य संवेदना 

कभी गूंजती थी संवेदनाओं की स्पंदन
कभी गठित थे रिश्तों के बंधन
कभी थे उन्मुक्त विचारों का आशियाँ
आह्लादित ह्रदय और पुल्कित मन
पर आज
ओढ़ रखे हैं निस्पृहता का कफ़न
लगा रखे हैं संकीर्णता के पहरे
 निस्पंद हैं भाव 
और निशब्द भावभंगिमा
चारों ओर रात्रि की घनघोर कालिमा
अब तो
नज़रें भी हैं वीरानी
जो देती हैं एक अमुक तबाही की निशानी!
क्यूँ नहीं रोए व्यथित मन!
क्यूँ सहते रहे भीतरी संताप!
क्यूँ हो गयी हैं संवेदनाएँ शून्य!




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